स्मार्टफोन डिस्प्ले के साथ जुड़ी शार्ट-फॉर्म का मतलब, सभी स्क्रीन के टाइप और उनके रेज़ॉल्यूशन के बीच जो अंतर है उसे आप इसे लेख में बेहतर समझ सकते हैं। ये पढ़ें: इन स्मार्टफोनों पर हाई क्वालिटी में देखें अपने बेस्ट हिंदी शो

डिस्प्ले टाइप

पिछले कुछ सालों में स्मार्टफोन की डिस्प्ले काफी बेहतर हुई हैं। लेकिन प्रत्येक स्मार्टफोन डिस्प्ले के साथ जो शार्ट-फॉर्म एक संक्षिप्त नाम जुड़ता है, जैसे कि AMOLED, LCD, इत्यादि वो केवल नाम नहीं बल्कि अपने आप में एक तकनीक है। स्मार्टफोन पर लगे पैनल AMOLED, OLED, LED, LCD, IPS, TFT, LTPS, इत्यादि होते हैं। ये सभी पूर्णत: अलग होते हैं। पहले ही इतने टाइप के पैनल मौजूद हैं, ऐसे में स्मार्टफोन निर्माता द्वारा फैंसी नामों का इस्तेमाल जैसे कि Apple द्वारा Super Retina XDR और Samsung द्वारा Dynamic AMOLED ग्राहकों के बीच भ्रम या असमंजस को और बढ़ा देता है। इसीलिए आइये कंपनी द्वारा स्पेसिफिकेशन शीट में लिखे जाने वाले कुछ शब्दों को एक बार फिर देखते हैं और उन्हें समझने की कोशिश करते हैं। ये पढ़ें: आखिर क्या है Doomscrolling, जो कोविड काल के दौरान बना ‘वर्ड ऑफ़ द ईयर’ ? डिस्प्ले के टाइप तो बहुत सारे हैं जैसे कि TFT, LTPS, AMOLED, OLED, IPS, LCD इत्यादि। लेकिन इन दिनों TFT, LTPS जैसी डिस्प्ले काफी कम हो गयीं हैं। किफ़ायती दामों पर और मिड-रेंज में आने वाले फोनों में आपको IPS LCD डिस्प्ले मिलेगी। लेकिन इन सबका विस्तार से समझें, तो मतलब क्या है ? अगर संक्षिप्त रूप से और आसान भाषा में समझें तो दो तरह की टेक्नोलॉजी- एलसीडी (LCD) और ओलेड (OLED) बाज़ार में आ रहीं हैं। प्रत्येक में कुछ विभिन्न प्रकार और जनरेशन हैं जो बाकी के स्क्रीन टाइप शार्ट फॉर्म को बनाती हैं। इसी तरह टेलीविज़न की दुनिया में भी अलग स्क्रीन टाइप उपलब्ध हैं जैसे कि LED, QLED, miniLED – ये सब दरसअल एलसीडी (LCD) तकनीक के ही अलग अलग रूप हैं जिनमें थोड़ी विविधताएं हैं।

अब जानते हैं कि LCD डिस्प्ले क्या है ?

LCD का मतलब या फुल फॉर्म है लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले (Liquid Crystal Display)। इसमें लिक्विड क्रिस्टल्स की एक श्रंखला दी जाती है जिसके पीछे एक बैकलाइट होती है। इस डिस्प्ले टाइप का हर जगह आसानी से उपलब्ध होना और कम दामों में इसका निर्माण इसे स्मार्टफोनों के लिए एक प्रचलित विकल्प या पसंद बनाता है। एलसीडी (LCD) आउटडोर यानि कि सीधे सूरज की रौशनी में भी काफी अच्छा प्रदर्शन देते हैं क्योंकि पूरे डिस्प्ले को पीछे से बैकलाइट यानि की रौशनी मिल रही होती है। लेकिन जिन रंगों को प्रकाश की ज़रुरत नहीं है, उन पर बैकलाइट पड़ने के कारण , डिस्प्ले पर वो रंग सटीक नहीं नज़र आते। स्मार्टफोनों में आपको दोनों डिस्प्ले TFT और IPS मिलती हैं। TFT का फुल फॉर्म है – Thin Film Transistor, जो LCD का ही एक बेहतर या एडवांस्ड वर्ज़न है, जो एक एक्टिव मैट्रिक्स (active matrix) का इस्तेमाल करता है। active matrix का अर्थ है कि प्रत्येक पिक्सेल एक अलग ट्रांजिस्टर और कपैसिटर से जुड़ा होता है। TFT डिस्प्ले का सबसे बड़ा फायदा यही है कि इसके प्रोडक्शन में तुलनात्मक कम खर्च होता है और इसमें असल LCD के मुकाबले ज्यादा कॉन्ट्रास्ट मिलता है। वहीं TFT LCD में नुकसान ये है कि इन्हें रेगुलर LCD प्रकारों के मुकबाले ज्यादा एनर्जी यानि बैटरी चाहिए, इनके व्यूिंग एंगल और रंग भी इतने अच्छे नहीं होते। इन्हीं सब कारणों से बाकी डिस्प्ले विकल्पों की गिरती कीमतों के कारण अब TFT डिस्प्ले का इस्तेमाल स्मार्टफोनों में नहीं किया जाता।

TFT, LTPS, LTPO, IGZO स्मार्टफोन डिस्प्ले

कुछ और कम इस्तेमाल होने वाले टर्म भी हैं जिन्हें कम्पनियाँ डिस्प्ले के लिए इस्तेमाल करती हैं। TFT(Thin Film Transistor) – ये भी LCD डिस्प्ले का ही एक प्रकार है जिसमें नीचे एक पतली सेमीकंडक्टर की परत होती है जो हर एक पिक्सल पर रंगों को नियंत्रित करने का काम करता है। इसका और AMOLED में आने वाले AM यानि कि active matrix का काम लगभग एक ही है। LTPS (Low Temperature PolySilicon) – ये भी Si (amorphous silicon) तकनीक पर आधारित TFT का ही वैरिएंट है जिसमें आपको हाई रेज़ॉल्यूशन मिलता है और ऊर्जा यानि कि पॉवर साधारणत: TFT से कम लेता है। IGZO (Indium Gallium Zinc Oxide) – ये भी एक सेमिकंडक्टर मैटेरियल है जो डिस्प्ले के नीचे लगी फिल्म में इस्तेमाल होता है और आजकल a semiconductor material used in TFT films, which also allows higher resolutions and lower power consumption, and sees action in different types of LCD screens (TN, IPS, VA) and OLED displays LTPO( Low Temperature Polycrystaline Oxide) – इस टेक्नोलॉजी को Apple ने डेवेलप किया है और इसे वर्तमान समय में OLED और LCD दोनों तरह की स्क्रीन में इस्तेमाल किया जाता है। इसमें LTPS और IGZO दोनों तकनीकों का इस्तेमाल मिलाकर किया जाता है और नतीजा होता है – डिस्प्ले द्वारा पॉवर का कम इस्तेमाल। ये Apple Watch 4 और Galaxy S21 Ultra में आयी है।

IPS डिस्प्ले

IPS तकनीक को In-Plane Switching तकनीक कहते हैं। IPS टेक्नोलॉजी ने सबसे पहले आयी LCD डिस्प्ले में आने वाली समस्या को दूर किया जिसमें TN तकनीक का इस्तेमाल होता था और इसमें साइड से देखने पर रंग बहुत ख़राब नज़र आते थे। ये कमी ज़्यादातर सस्ते स्मार्टफोन और टैबलेटों में नज़र आया करती थी। IPS पैनल में, लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले में सीधे एक कतार में लगे होते हैं जिससे आपको स्क्रीन पर बेहतर व्यूइंग एंगल मिलते हैं। आमतौर पर स्मार्ट टीवी में आपने देखा होगा कि डिस्प्ले पर आपको 178º व्यूइंग एंगल मिलता है और ये IPS डिस्प्ले की ही विशेषता है। जैसे कि हमने आपको बताया, LCD टेक्नोलॉजी के अनेक प्रकार (type) हैं और उनके मुकाबले IPS स्क्रीन की एक और अच्छी बात ये है कि यहां आपको कलर रिप्रोडक्शन बेहतर मिलता है। ये ऐसे मॉनीटरों के लिए काफी अच्छा है जिसपर इमेज एडिटिंग जैसे कार्य किये जाते हैं।

PLS LCD डिस्प्ले

PLS (Plane to Line Switching) – PLS और IPS के नाम या उनके फुल फॉर्म लगभग एक ही जैसे लगते हैं। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि इनका मुख्य कार्य भी एक समान ही है। PLS टेक्नोलॉजी को Samsung Display द्वारा बनाया गया है और IPS डिस्प्ले की ही तरह इसकी विशेषता भी डिस्प्ले पर अच्छे रंग दर्शाना और बेहतर व्यूइंग एंगल दिखाना ही हैं। लेकिन इसमें OLED और LCD/VA डिस्प्ले के मुकाबले कॉन्ट्रास्ट थोड़ा कम है। Samsung Display का कहना है कि PLS पैनलों के उत्पादन में लागत कम लगती है, ब्राइटनेस लेवल अच्छा मिलता है और प्रतियोगी कंपनी LG Display के IPS पैनलों के मुकाबले व्यूइंग एंगल भी काफी अच्छे मिलते हैं। अंतत: PLS पैनल का उपयोग किया जाए या IPS पैनल का इस्तेमाल करें, ये पूरी तरह से स्मार्टफोन निर्माताओं पर निर्भर करता है।

टेलीविज़न या स्मार्टफोन डिस्प्ले LED है या LCD ?

LED टेलीविज़नों के बाज़ार में आने के बाद से ये बहुत ही आम सवाल बन गया है और इसका सीधा सा जवाब LCD ही है। LED में भी जो तकनीक इस्तेमाल होती है वो Liquid Crystals ही है, बस फर्क इतना सा है कि LED टीवी में पीछे से रौशनी देने वाली लाइट LED लाइट होती है। LEDs का अपना लाभ ये है कि इस तकनीक में बिजली की खपत काफी कम होती है और इसीलिए टीवी कंपनियों के मार्केटिंग विभाग द्वारा इस शब्द पर काफी ज़ोर दिया जाता है, लेकिन जब बात स्मार्टफोन की आती है तो यहां कोई ख़ास लाभ नहीं है। वहीं दूसरी तरफ, LCD/ LED डिस्प्ले में बैकलाइट जिस तरह से आती है उसके कारण अच्छा कॉन्ट्रास्ट नहीं मिल पाता, क्योंकि यहां हर एक पिक्सल लाइट को कंट्रोल करने का काम नहीं कर रहा है और यहीं इसकी टक्कर में OLED डिस्प्ले आती हैं, जिनमें आपको कॉन्ट्रास्ट लेवल अच्छा मिलता है।

AMOLED डिस्प्ले

AMOLED की फुल फॉर्म – एक्टिव मैट्रिक्स ऑर्गेनिक लाइट एमिटिंग डायोड (Active Matrix Organic Light-Emitting Diode) है। हालांकि ये सुनने में बहुत मुश्किल नाम लग रहा होगा, लेकिन ये है नहीं। हम पहले ही TFT LCD टेक्नोलॉजी में एक्टिव मैट्रिक्स के बारे में पढ़ चुके हैं और अब रहा OLED, तो ये केवल एक पतली फिल्म वाली डिस्प्ले तकनीक है और कुछ नहीं। OLED एक डिस्प्ले टाइप है और बिलकुल अपने नाम की ही तरह ऑर्गेनिक लाइट एमिट करता है। एलसीडी पैनल में पीछे बैक लाइट होती है, जबकि इसके ठीक विपरीत OLED डिस्प्ले पूरी तरह बंद होता है और हर एक पिक्सल में करंट पास होते ही पिक्सल अपनी लाइट छोड़ता है, जिसके साथ रंग बिल्कुल सटीक मिलते हैं। OLED में रंग सटीक मिलने के कारण ही यहां ज्यादा गहरा या कहें कि अच्छा काला रंग मिलता है और गहरे किसी भी रंग को डिस्प्ले करने में ये तकनीक ऊर्जा भी काफी कम लेती है। लेकिन OLED स्क्रीन के उत्पादन में लगने वाली लागत, LCD स्क्रीन के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। और क्योंकि OLED डिस्प्ले में काले पिक्सल बंद हो जाते हैं, उनमें करंट नहीं आता, इसीलिए कॉन्ट्रास्ट लेवल भी LCD डिस्प्ले के मुकाबले ज्यादा मिलता है। AMOLED डिस्प्ले में रिफ्रेश रेट तो ज़्यादा मिल जाता है, लेकिन वहीँ LCD डिस्प्ले को, AMOLED की तुलना में ज्यादा ब्राइट बनाया जा सकता है। क्योंकि ये एक ऑर्गेनिक मैटीरियल से बने होते हैं, एक लम्बे समय के इस्तेमाल के बाद इनकी ब्राइटनेस घटने लगती है जिससे कई बार स्क्रीन बर्न-इन जैसी समस्याएं भी आ सकती हैं। हालाँकि ये समस्या पुराने स्मार्टफोनों में ज्यादा आती थी, अब ऐसा ना के बराबर होता है। वहीँ इसकी अच्छी बात ये है कि AMOLED डिस्प्ले LCD के मुकाबले पतली होती हैं क्योंकि इनमें अंदर बैकलिट की परत लगाने की ज़रुरत नहीं पड़ती और इन्हें फ्लेक्सिबल यानि कि लचीला भी बनाया जा सकता है।

अब जानते हैं – OLED, AMOLED और Super AMOLED के बीच का अंतर

OLED को- Organic Light Emitting Diode कहते हैं। एक OLED डिस्प्ले electroluminescent मैटीरियल की पतली शीट से बनी होती है, जिसका सबसे बड़ा फायदा यही है कि ये अपनी रौशनी खुद पैदा करते हैं और इन्हें बैकलाइट की ज़रुरत नहीं पड़ती, जिससे ऊर्जा या बिजली की ज़रुरत कम पड़ती है। यही OLED स्क्रीन जब स्मार्टफोन या टीवी के लिए उपयोग होती है तो इसे ज़्यादातर AMOLED डिस्प्ले के नाम से जाना जाता है। जैसे कि हमने पहले भी बताया AMOLED में AM एक्टिव मैट्रिक्स (Active Matrix) के लिए इस्तेमाल होता है। हालाँकि ये पैसिव मैट्रिक्स (Passive Matrix) OLED से अलग होता है जिसे p-OLED कहा जाता है। ये स्मार्टफोनों में थोड़ा कम प्रचलित है। वहीं Super AMOLED, दक्षिणी कोरियाई कंपनी Samsung द्वारा दिया गया है एक नाम है जो अब कंपनी के मिड-रेंज से प्रीमियम रेंज के स्मार्टफोनों में देखने को मिलता है। IPS LCD की ही तरह, Super AMOLED डिस्प्ले में साधारण AMOLED डिस्प्ले पर टच रिस्पांस लेयर को जोड़कर एक किया जाता है, इसमें अलग से एक परत नहीं लगाई जाती। और इसका नतीजा ये होता है कि Super AMOLED स्क्रीन सूरज की रौशनी या आउटडोर में AMOLED के मुकाबले बेहतर नज़र आती हैं और साथ ही ये पावर भी कम लेती हैं। जैसे कि Samsung ने इस स्मार्टफोन डिस्प्ले टाइप का नाम -Super AMOLED रखा है। साधारण भाषा में ये AMOLED स्क्रीन का सुधार किया गया या कहें कि बेहतर वर्ज़न है। और ये केवल मार्केटिंग के लिए मारने वाली डींगें नहीं हैं, बल्कि कई उत्पादों की समीक्षा (review) करने बाद, तथ्य यही है कि Samsung की डिस्प्ले बाज़ार में सबसे उत्तम श्रेणी में आती हैं। वहीँ इसकी तकनीक में किये गए सबसे नए विकास या सुधार को कंपनी ने Dynamic AMOLED का नाम दे दिया। . हालांकि Samsung ने इसके बारे में कभी विस्तार से नहीं बताया है लेकिन इतना साफ़ कर दिया है कि इस तरह की डिस्प्ले में HDR10+ सर्टिफिकेशन शामिल होता है जिसके साथ आपको स्क्रीन पर रंगों और कॉन्ट्रास्ट की एक वाइड रेंज मिलती है। साथ ही इसमें ब्लू लाइट कम होती जिससे ये डिस्प्ले आँखों के लिए ज्यादा आरामदायक हो। ठीक इसी तरह OnePlus ने भी हाई-एंड स्मार्टफोनों के लिए नाम रखा है – Fluid AMOLED, जिसमें हाई रिफ्रेश रेट ही इसकी ख़ास बात है, इसमें कोई और अंतर नहीं होता। उदाहरण के लिए – डिस्प्ले अगर 120Hz रिफ्रेश रेट के साथ आएगी तो उसमें आपको और ज्यादा स्मूथ एनीमेशन मिलेगा।

Foldable और Rollable डिस्प्ले

OLED डिस्प्ले का एक और फायदा ये है कि बैकलाइट की परत हटाने पर कॉम्पोनेन्ट और भी पतला हो जाता है, जिससे लचीलापन (flexiblity) बढ़ती है। इसीलिए फोल्डेबल फोनों में OLED डिस्प्ले का ही प्रयोग होता है। ये चीज़ हम उन स्मार्टफोनों में देख चुके हैं जो मुड़ने या बेंड होने वाली डिस्प्ले के साथ आते हैं। साथ ही अब इसका प्रयोग अब रोल होने वाली (rollable) डिस्प्ले में होने लगा है जो अभी तक कॉन्सेप्ट फोनों में नज़र आयी है। सबसे पहले फोल्डेबल डिस्प्ले तकनीक हमें Royole FlexPai स्मार्टफोन में नज़र आयी जिसमें चीन की कंपनी BOE का OLED पैनल लगा है। इसके बाद Huawei Mate X और Motorola Razr में भी BOE कंपनी का ही OLED फोल्ड होने वाला डिस्प्ले लगा था। इसके बाद हमने Galaxy Flip और Fold स्मार्टफोन देखे हैं जिनमें Samsung की ही फोल्डेबल स्मार्टफोन डिस्प्ले मौजूद है।

अब जानते हैं Retina, Super Retina XDR डिस्प्ले के बारे में

पिक्सल डेंसिटी की बात करें तो, 2010 में iPhone 4 के लॉन्च के समय Apple का मुख्य आकर्षण यही था। इस स्मार्टफोन डिस्प्ले में कंपनी ने LCD डिस्प्ले का इस्तेमाल किया। इस LCD पैनल ((LED, TFT, और IPS) को हाई रेज़ॉल्यूशन (उस समय पर 960 X 640 पिक्सल्स) के साथ Retina Display का नाम दिया। इस फ़ोन में 3.5 इंच की डिस्प्ले थी। उस समय पर Apple के मार्केटिंग डिपार्टमेंट ने Retina Display नाम इसलिए चुना क्योंकि कंपनी के अनुसार एक निश्चित दूरी से हमारी या किसी भी इंसान की आंखें अलग-अलग पिक्सल में फर्क नहीं कर पाती। iPhones के केस में, ये नाम तब इस्तेमाल होता था जब फ़ोन की डिस्प्ले पर 300 ppi (pixel per inch) से ज्यादा होती थी। तब से, अन्य स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनियों ने भी यही तरीका अपनाया और हाई रेज़ॉल्यूशन वाले पैनलों को अपनाना शुरू कर दिया। जबकि iPhone 12 Mini में 476 dpi और Sony Xperia 1 में 643 dpi मिलती है।   जब सबने हाई रेज़ॉल्यूशन के साथ डिस्प्ले लेना आरम्भ कर दिया, फिर Apple ने खुद को भीड़ में अलग करने के लिए अपने प्रीमियम स्मार्टफोनों में इस्तेमाल होने वाली OLED डिस्प्ले को “Super Retina” का नाम दे दिया। ये डिस्प्ले iPhone X और उसके बाद आने वाले फोनों में आयी है। ये डिस्प्ले हाई कॉन्ट्रास्ट रेट और डिस्प्ले पर रंगों की सटीकता के लिए जानी जाती है, और ऐसी ही स्क्रीन Samsung के S-सीरीज़ के स्मार्टफोनों में भी आप देख सकते हैं। इसके बाद कंपनी ने iPhone 11 Pro के साथ डिस्प्ले का नया नाम भी लॉन्च किया – “Super Retina XDR”। इसमें भी वही OLED पैनल का उपयोग किया गया है, लेकिन इसे पैनल का निर्माण Samsung Display या LG Display द्वारा हुआ है। इसमें आपको 2,000,000:1 रेश्यो के साथ और भी बेहतर कॉन्ट्रास्ट लेवल और 1200 nits की ब्राइटनेस मिलते हैं और ये ख़ासकर HDR कंटेंट के लिए अनुकूल हैं। वहीं iPhone XR और iPhone 11 के ग्राहकों को भी खुश रखने के लिए कंपनी ने इनमें आने वाले LCD पैनल को “Liquid Retina” का नाम दे दिया। बाद में यही डिस्प्ले कंपनी स्टैण्डर्ड के अनुसार बेहतर रेज़ॉल्यूशन और सही रंगों के साथ iPad Pro और iPad Air मॉडल में भी आया।

Nits और Brightness लेवल

अंतरराष्ट्रीय प्रणाली या सिस्टम में Nit या कैंडेला प्रति वर्ग मीटर (candela per square meter), जलने या निकलने वाली रौशनी की तीव्रता या गहनता (intensity) को मापने की यूनिट है। अधिकतर स्मार्टफोन, टैबलेट, मॉनिटर के बारे में जब हम बात करते हैं तो ये यूनिट बताती है कि डिस्प्ले कितना ब्राइट है। इसकी वैल्यू जितनी ज्यादा होगा, डिस्प्ले पर पिछले से पड़ने वाली रौशनी की तीव्रता भी उतनी ही ज्यादा होगी।

60Hz, 90Hz, या 120Hz – रिफ्रेश रेट का अर्थ क्या है ?

2019 और 2020 वर्ष के दौरान प्रीमियम और मिड-रेंज में मिलने वाले स्मार्टफोनों में “120 Hz” और “90 Hz” रिफ्रेश रेट ज्यादा प्रचलित हुए। इसके साथ ही 50Hz हो या 60Hz, इनमें Hertz पैनल पर आने वाले रिफ्रेश रेट को परिभाषित करता है, फिर चाहे डिस्प्ले एलसीडी हो या ओलेड। इसकी वैल्यू या कहें कि नंबर जितना ज्यादा होगा, डिस्प्ले पर प्रति सेकेंड उतने ही ज्यादा फ्रेम नज़र आएंगे। और प्रति सेकेंड ज्यादा फ्रेम डिस्प्ले होने का नतीजा होता है स्क्रीन पर स्मूथ एनीमेशन। जितना ज्यादा रिफ्रेश रेट होगा, गेमिंग के दौरान और साधारणत: आपको उतने अच्छा और स्मूथ एनीमेशन स्क्रीन पर दिखेगा। फिलहाल बाज़ार में उपलब्ध स्मार्टफोनों की डिस्प्ले पर आमतौर पर 60Hz रिफ्रेश रेट मिलता है। सबसे पहले ये फ़ीचर Razer Phone में 2017 में आया था और समय के साथ ये धीरे धीरे काफी प्रचलित हो गया है। अब कंपनियां इसे और बेहतर तरीके से उपयोग करने के लिए वेरिएबल रिफ्रेश रेट के साथ डिस्प्ले चुनने लगी हैं, जिनमें स्क्रीन पर आने वाले कंटेंट के अनुसार डिस्प्ले अपने आप रिफ्रेश रेट एडजस्ट कर लेता है। इसमें ज़्यादातर फिल्मों के लिए 24 फ्रेम प्रति सेकेंड और वीडियो रिकॉर्डिंग के लिए 30 या 60 फ्रेम प्रति सेकेंड होता है। बाकी किस रिफ्रेश रेट के साथ डिस्प्ले दी गयी है, उसके अनुसार ही fps (फ्रेम प्रति सेकेंड) की वैल्यू बदलती रहती है। यही यूनिट टच सैंपलिंग रेट को मापने के लिए भी इस्तेमाल होती है। ये वैल्यू आपको बताती है कि आपके फ़ोन की स्क्रीन कितनी रेस्पॉन्सिव है। इस वैल्यू से पता चलता है कि प्रति सेकेंड में कितनी बार स्क्रीन टच को रीड करती है। टच सैंपल रेट जितना ज्यादा होगा, फ़ोन की स्क्रीन उतनी ही तेज़ी से रेस्पॉन्स करेगी।

भविष्य में क्या डिस्प्ले तकनीक मिलेगी – microLED

टेलीविज़न की दुनिया में, miniLED के बारे में हम जान चुके हैं और ये फ़ीचर या तकनीक टीवी में हम देखते ही आ रहे हैं। इसमें बैकलाइट में लाइटिंग ज़ोन का नंबर बढ़ा दिया जाता है। लेकिन अब अफवाहों और कई ख़बरों के अनुसार स्मार्टफोनों और स्मार्टवॉच में भी कंपनियां microLED टेक्नोलॉजी जल्दी ही लेकर आ सकती हैं। ये टेक्नोलॉजी या पैनल LCD/LED से काफी अलग है क्योंकि ये OLED डिस्प्ले की तरह ही बारीकियों के साथ अच्छी पिक्चर क्वॉलिटी देती है। microLED डिस्प्ले में हर एक सब-पिक्सल में एक अलग रौशनी देने वाला डायोड होता है – अधिकतर ये एक लाल, हरे और नीले डायोड का एक सेट होता है जो एक डॉट के लिए होता है । माना जा रहा है कि microLED में इस बार किसी तरह की अजैविक (inorganic) मैटेरियल का इस्तेमाल होगा जैसे कि gallium nitride (GaN)। खुद अपनी रौशनी छोड़ने वाला पिक्सल यानि कि self-emitting light जैसी तकनीक अपनाने के साथ, microLED डिस्प्ले में भी बैकलाइट की ज़रूरत नहीं होती। इसमें भी आपको OLED जैसे ही हाई कॉन्ट्रास्ट के साथ पिक्चर देखने को मिलेंगी और साथ ही इसमें ऑर्गेनिक डायोड की तरह स्क्रीन बर्न-इन जैसी समस्याओं का डर भी नहीं है। microLED तकनीक की एक और अच्छी चीज़ ये है कि इसमें आपको डिस्प्ले पर ज़्यादा ब्राइटनेस के साथ तस्वीर या कंटेंट देखने को मिलते हैं और वो भी कम पॉवर या ऊर्जा के साथ। इसमें आपको OLED और LCD दोनों की विशेषताएं देखने को मिलेंगी। दूसरी तरफ, इतने सारे सब-पिक्सल के लिए अलग-अलग डायोड के उपयोग के कारण कॉम्पोनेन्ट को उसकी सभी विशेषताओं के साथ छोटे आकार में बनाना अपने आप में एक चुनौती है। उदहारण के लिए – फुल एचडी रेज़ॉल्यूशन में लगभग 20 लाख से ज्यादा पिक्सल होते हैं जिनके लिए RGB (लाल, हरा और नीला) संरचना वाले 60 लाख माइक्रो एलईडी की ज़रुरत होती है। यही कारण है कि इस टेक्नोलॉजी को अभी तक सीमित (लिमिटेड) रूप से ही इस्तेमाल किया गया है। इन्हें आप ज़्यादातर बड़ी स्क्रीन पर ही देखेंगे – 75 इंच से 150 इंच वाली स्मार्ट टीवी पर, जो 4K रेज़ॉल्यूशन के साथ आती हैं और उनमें लगभग 83 लाख पिक्सल होते हैं (लगभग 2.4 करोड़ RGB सब-पिक्सल)। आप खुद ही सोचिये कि कितना बड़ा नंबर है। साथ ही दूसरी चुनौती ये है कि इनकी कीमत भी काफी ज्यादा होती है। उदाहरण के लिए – Samsung की microLED TVs (146 इंच से 292 इंच) की कीमत 3.5 करोड़ से 12 करोड़ है, जो कि बहुत ही ज़्यादा है।

LCD/LED या फिर AMOLED- क्या चुनें?

हर टेक्नोलॉजी के अपने अलग फायदे हैं और साथ ही नुकसान भी, लेकिन हाल ही के कुछ सालों को देखें तो OLED स्क्रीन की तरफ रुझान ज्यादा देखा गया है, ख़ास तौर से प्रीमियम फ़्लैगशिप स्मार्टफोनों में। Apple के iPhone X के लॉन्च के बाद OLED डिस्प्ले की लोकप्रियता बढ़ती गयी और यही वो स्मार्टफोन था जो हाई-एंड रेंज में लॉन्च हुआ और जिसने OLED डिस्प्ले का परिचय दुनिया से करवाया। जैसे कि हमने पहले भी कहा, OLED या AMOLED डिस्प्ले में सबसे बड़ा फ़ायदा है कि हर पिक्सल खुद को रौशनी देने का कार्य संभालता है और इससे कंट्रास्ट लेवल बढ़ता है। साथ ही दूसरा फ़ायदा है ज़्यादा और सटीक काला रंग, जो कि डिस्प्ले पर देखते समय अच्छी पिक्चर क्वालिटी के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। साथ ही जिस समय स्क्रीन कोई गहरे (डार्क) रंग की तस्वीर दिखाती है तो ये ये ऊर्जा भी कम लेते हैं। वहीँ इनकी ख़ामियों की बात करें तो, इनको बनाने में काफी ज़्यादा लागत लगती है और कॉम्पोनेन्ट की पूर्ती करने वाली कंपनियां भी सीमित ही हैं। इनमें Samsung Display, LG Display और तीसरे नंबर पर चीन की इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी BOE और कुछ एक जो OLED की मांग को पूरा करते हैं। जबकि LCD पैनल बनाने वाली काफी कम्पनियां हैं। इसके अलावा एक और बात जो हम यहां जोड़ना चाहते हैं, समय के साथ OLED स्क्रीन के ऑर्गेनिक डायोड अपनी चमक या कहें कि योग्यता खो देते हैं और ये तब होता है जब एक ही तस्वीर ज्यादा समय तक डिस्प्ले होती है। इसे कपनियां  “burn-in” का नाम देती हैं।

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